भारतीय संस्कृति ने युगानुकूल प्रतीक दिये हैं। हमारा यह बोध चिन्ह भी ऐसा ही एक अद्भूत प्रतीक है जिसे सर्वश्रेष्ठ, सारगर्भित और सुन्दर मानते हुए अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा ने चित्तौड़गढ की बैठक में हमारे समाज के लिए स्वीकृत किया है। त्याग और पराक्रम की भूमि, भगवान एकलिंगजी का सान्निध्य एवं संस्कृति संरक्षक चित्तौड की साक्षी में यह बोधचिन्ह अंगीकृत हुआ। बोधचिन्ह का दर्शन अत्यन्त मंगलमय है, देखते ही अनेक प्रेरक भाव मन में प्रस्फुटित होते हैं। इसमें श्वेत कमलपुष्प के कोमल आसन पर भगवान महेश सांवले लिंग में विराजमान है। भगवान शिव हमारे समाज के निर्माणकर्त्ता है। वे हमारे आराध्य है। भगवान शिव के पिण्ड पर त्रिपुंड, त्रिशूल एवं डमरू शोभा दे रहे हैं।
कमलपुष्प नौ पंखुडियों वाला है। कमल का पुष्प देवी देवताओं का अत्यन्त प्रिय पुष्प है। देवी सरस्वती श्वेतपद्मासना है तो देवी महालक्ष्मी लाल कमल पर विराजमान है। लक्ष्मी के तो दोनों हाथों में कमल होते हैं। भगवान विष्णु के एक हाथ में सुदर्शन तो दूसरे हाथ में कमल पुष्प रहता है और ब्रह्माजी का दर्शन हमें सदैव नाथी कमल पर ही होता है। कमल पुष्प की और एक विद्गोषता है कि वह कीचड में खिलता है और जल में रहते हुए भी उससे लिप्त नहीं होता। कहते हैं कमल की पंखुडी तथा पत्ते पर जल बिन्दु नहीं ठहरता, पानी में रहते हुए भी पानी से अलिप्त, बिलकुल अनासक्त। यही भाव समाज में काम करते समय हमारा होना चाहिए। हम काम करेंगे, करते रहेंगे लेकिन फल की कोई अपेक्षा न रखते हुए। न हमें पद की चाह हो, न मान-सम्मान की। कमल का पुष्प मंगल है और अनासक्ति का द्योतक है।
कमल पुष्प की नौ पंखुडियों के बीच की पंखुडी पर अखिल ब्रांड का प्रतीक, सभी मंगल मंत्रे का मूलाधार की स्थापना है। परमात्मा के असंख्य रूप है उन सभी रूपों का समावेश ओंकार में हो जाता है। सगुण निर्णुण का समन्वय और एकाक्षर ब्रह्म भी है। भगवद गीता में कहा है "ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म" | माहेश्वरी समाज आस्तिक और प्रभुविवासी रहा है। इसी ईवर श्रद्धा का प्रतीक है।
शब्दब्रह्म के पाद्गर्वभाग में अखिल ब्रह्मांड के नायक भगवान 'शिव' का त्रिपुंड, त्रिशूल एवं डमरू के साथ दर्शन होता है। अत्यन्त वैभव सम्पन्न होने पर भी भगवान शिव की सादगी सीमातीत है। वे वैराग्यमूर्ति बनकर भस्म में रमाए रहते हैं। भस्म का त्रिपुंड शिवजी की त्याग वृत्ति का प्रतीक है। 'त्रिशूल ' शस्त्र भी है और शास्त्र भी। आततायियों के लिए यह एक शस्त्र है, तो सम्यक दर्शन , सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र का यह एक अनिर्वचनीय शास्त्र भी। त्रिशूल त्रिविध तापों को नष्ट करने वाला एवं दुष्ट प्रवृत्ति का दमन करने वाला है और डमरू बताता है कि उठो जागों और परिवर्तन का डंका बजाओं। समाज-मानस को जागृत करके समस्याओं को दूर करों।
कमलासन के नीचे त्रिदलीय बिल्वपत्र है जो विद्गवधर्म को आलोकित करने वाले तीन गुणों से मंडित है, ये तीन गुण हैं - ''सेवा, त्याग, और सदाचार''| मानव जीवन को सार्थक, सफल और सुन्दर बनाने वाले ये तीन गुण हैं और संगठन को सुरभित करने वाले भी ये तीन गुण है।
सेवा
समाज का बहुत बड़ा ऋण हर व्यक्ति पर होता है। समाज हमारे लिए जन्म से मृत्यु तक बहुत कुछ करता है। इसलिए समाज में परमात्मा की भावना करके उसकी सेवा करने का प्रयास करना चाहिए। मेरे पास कुछ हो अथवा न हो, समाज से प्रेम करना, समाज की सेवा करना मेरा कर्तव्य है। माता पुत्र की सेवा करती है लेकिन ऐसा कभी नहीं मानती कि मैंने बहुत कुछ किया है। सेवा करती है बदले में कुछ नहीं चाहती। यही सच्ची सेवा है। समाज में अनेक समस्याएं हैं। इन सबको हम नहीं सुलझा सकते। किन्तु निराधार को आधार, वैद्यकीय सेवा, व्यावसायिक सहायता, द्गिाक्षा अथवा संस्कार, इनमें अपनी क्षमतानुसार योगदान देकर हम समाज की सेवा कर सकते हैं। सेवावृत्ति में ही क्षमताओं की सार्थकता है और सेवावृत्ति ही मनुजता की पहचान है।
अपने पास थोड़ा ही अतिरिक्त समय, घन अथवा किसी प्रकार का बल हो तो वह समाज स्वरूप परमात्मा की सेवा में लग जाये, यही उसका सर्वोत्तम सदुपयोग है। सेवा से लोगों के मन में अपनेपन का भाव निर्माण होता है और संगठन सुदृढ होता है। उसमें शक्ति आती है। सेवा से कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों फलित होते है।
त्याग
त्याग की महिमा अपरम्पार है। त्याग की महिमा से हमारे शास्त्र भरे हुए हैं। समाज की उन्नति त्याग के बिना सम्भव नहीं। हमारे पूर्वज स्वयं सादगीपूर्ण जीवन बिताते थे और परिश्रम से प्राप्त की हुई पूंजी को समाजोपयोगी कार्यों में लगाकर स्वयं को धन्य मानते थे। इन्हीं विचारों से विद्यालय, अस्पताल, देवमन्दिर, धर्मशालाय , महाविद्यालय, छात्रावास आदि का निर्माण हुआ है।
मुझे जो सम्पत्ति प्राप्त हुई है उसमें परमात्मा की कृपा का भी अंद्गा है, परिवार का, समाज का, देद्गा का भी हिस्सा है, ऐसी भावना को दृढ़ बनाने पर बल दिया गया है कि संसार में जो सम्पत्ति है वह किसी व्यक्ति की नहीं अपितु श्री भगवान की हैं।
''ईशावास्यमिदं सर्व यत् किंच जगत्या जगत्''
इस प्रकार की भावना रखने पर ऐसे त्यागपूर्ण उपभोग का अभ्यास हो जाता है जिसमें व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक संतुलन रहता है और यह संतुलन अपने आप सार्वत्रिक शान्ति की प्रस्थापना करता है।
संगठन का स्वरूप विराट बने ऐसा हमें नित्य लगता रहता है। त्याग के बिना वह हो नहीं सकता। उसके लिए अर्थदान, समयदान, श्रमदान और श्रेयदान की आवद्गयकता है। समाज की सेवा करने वाले हर कार्यकर्ता को तथा हर पदाधिकारी को उपरोक्त चार प्रकार के त्याग को विद्गोष महत्व देना चाहिए। आदर्द्गा नेतृत्व वहीं कर सकता है जो अपनी पूरी क्षमता के साथ उपरोक्त चार प्रकार के दान प्रेम एवं सेवा भाव से करता रहता है। धन केवल मेरा नहीं इस भावना से जैसे धन के विवेक पूर्ण वितरण की प्रेरणा मिलती है, उसी प्रकार मुझे मेरा समय भी दूसरों के लिये देना चाहिये। ऐसी धारण रखना जरूर है। वृद्ध माता-पिता, छोटे बालक, मित्र, परिवार, समाज के छोटे-छोटे कार्यकर्ता, समाज के उत्सव, बैठके आदि के लिए समय निकालना बहुत आवद्गयक है। शरीर से भी मुझे मित्र, परिवार तथा समाज का काम करना चाहिए। यह है श्रम का दान।
कोई भी काम करने से कमीपन महसूस होने देना श्रेष्ठता का द्योतक है। गांधीजी ने पाखाने साफ किये, तिलक जी ने कार्यकर्ताओं के लिए पानी गरम किया, मालवीय जी दे दरियां उठायी। श्रम का भी बड़ा मूल्य होता है इसलिए निष्ठा से श्रमदान करो और अंत में सब से महत्व का दान है श्रेय दान। कार्य का श्रेय दूसरों को देते रहो। जब कोई कहता रहता है कि यह ''मैंने किया'' तो उस किए हुए कार्य का मूल्य शून्य हो जाता है। श्रेय देने से कार्य का मूल्य बढ ता है। इसलिये कभी भी 'मैं', 'मैंने', 'मुझे' की रट नहीं लगाओं। दूसरों को श्रेय बांटते रहें।
ध्यान में समाज निरपेक्ष त्याग की पूजा बांधता है। असाधारण त्याग करके कई विभूतियाँ अमर हो गई। राद्गट्र के लिए सम्पत्ति का त्याग करने वाले भामाद्गााह, धर्म पालन के लिए अपने देह के मांस खण्डों को काटने वाले राजा शिबी , संस्कृति संरक्षण के लिए मर मिटने वाली चौदह हजार राजपूत विरांगनाएं, आशाशाह , असुरों, का विनाद्गा करने हेतु अपनी हडि्डयां देने वाले महर्षि दधीचि, त्याग के ऐसे कई प्रसंगों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है। धन्य है ये महान् विभूतियां! उनके त्याग की अमर गाथाएं, हमें हरदम प्रेरणा देती रहेंगी।
सदाचार
मानव जीवन में सदाचार का स्थान बहुत ऊँचा है। सब कुछ है, लेकिन आचरण अच्छा नहीं, तो मुनष्य की कीमत शून्य हो जाती है। यह सदाचार का गुण ही है जो मुनष्य को देव बनाता है। महाभारत में भी कहा गया है -
आचारा भूतिजनन आचारः कीर्तिवर्धनः।
आचाराद् वर्धते ह्यायुचारो हन्त्यलक्षणम्॥
(सदाचार कल्याण-वर्धक और कीर्तिवर्धक है। सदाचार आयु को बढ़ाता है तथा बुरे लक्षणों को नष्ट करता है)
सदाचार से समाज का उत्थान होता है और अनाचार से पतन। सदाचार से ही लोग आकर्षित होते हैं। सदाचार का ही आदर सब करते हैं, दुराचार का सर्वत्र अनादर होता है। उत्तम आचरण की प्रशंसा होती है, दुराचार से अपकीर्ति। सम्पूर्ण सदाचार का पालन मानवीय दुर्बलताओं के कारण कठिन होने पर भी हमारा लक्ष्य सदाचार का वातावरण सर्वत्र बने यहीं है। व्यक्ति-व्यक्ति को सदाचारी बनाना और सदाचारी व्यक्तियों को संगठित करना यहीं सामाजिक उद्धार का मूल मंत्र है।
सेवा, त्याग, सदाचार का उदघोषाक हमारा यह बोधचिन्ह सचमुच बड़ा अथर्पूर्ण है। हमारे इस अलौकिक बोधचिन्ह का प्रचार"प्रसार हमें जितना हो उतना अधिकाधिक करना चाहिए। महासभा का यह पथप्रदर्शक, प्रेरक गौरवाशाली चिन्ह है। हर माहेश्वरी व्यक्ति की तथा संस्था की यह पहचान बने, ऎसी हमारी भावना है। जहाँ"जहाँ हो सके इसे छपाईए। घर में, दुकान में सर्वत्र् लगाईए। हर उत्सव में हर कार्यक्रम में इससे प्रेरणा लीजिए।
माहेश्वरी जाती की उत्पती स्थान :लुहागर जी (सीकर के पास )राजस्थान
विक्रम सम्बत -मिती सेवा शुल्क - खंडेला नगर में सूर्यवंशी रजाओं में चौहान जाती के राजा खड्गलसेण राज्य करते थे | एक समय राजा ने भू-देव जगतगुरु ब्राह्मणों को बड़े आदर पुर्वक अपने मन्दिर में भोजन कराकर उन्हें द्रव्य आदि अर्पण किये तब ब्राह्मणों ने कहा- हे राजन ! तेरा मन वांछित वरदान सिद्ध हो जाय, तब राजन बोला - हे महाराज मुझे पुत्र की वांछना है - तब ब्राह्मणों ने कहा -हे राजन - तू शिव- शक्ति की सेवा कर, तेरे चक्रवर्ती पुत्र बड़ा बलशाली और बुद्धिमान होगा लेकिन उसे सोलह साल तक उत्तर दिशा में मत जाने देना और न ही सूर्यकुंड में स्नान करने देना तथा न ही ब्राह्मणों से द्वेष करने देना | अन्यथा इसी देह से उसका पुर्नजन्म हो जायेगा| राजा ने वचन दिया की ब्रह्मण देवताओं में ऐसा नहीं करने दूंगा | तब ब्राह्मणों ने आशीर्वाद दिया , और रजा ने ब्राह्मणों को दान दक्षिण देकर विदा किया | ब्राह्मन अपने -अपने स्थानों पर चले गये |
राजा खडागलसेण की चौबीस रानियाँ थी , उनमें से रानी चम्पावती के पुत्र हुआ | राजपुत्र का नाम सुजान रखा गया | राजपुत्र वास्तव में महाबलशाली बुद्धिमान था | उसने बारह वर्ष की आयु में ही चौदह विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया | राजा बड़ा प्रसन्ना हुआ | वह शस्त्र विद्या में भी निपुण हो गया | लोग राज पुत्र से डरने लगे |
उसी समय जैन धर्म को मानाने वाले आये और उन्होंने राजपुत्र को जैन धर्मोपदेश दिया जिससे राजपुत्र प्रभावित हुआ | और सब मत के विरुद्ध हो गया , ब्राह्मणों से द्वेष करने लगा | राजपुत्र ने अपने सम्पूर्ण राज्य में शिवमूर्ति का खण्डन कर जैन मन्दिर स्थापित कीए | केवल उत्तर दिशा ही शेष रह गई जिस ओर जाने से राजा ने मना कर रखा था | लेकिन राजपुत्र कब मानने वाला था , वह ७२ उमरावों सहित उत्तर दिशा की ओर रवाना हो गया , वहाँ जाकर राजपुत्र ने देखा की सूर्यकुण्ड पर ६ रुशिस्वर पराशर, गौतम, भरद्वाज आदि यज्ञ करा रहें हैं|
राजपुत्र ने क्रोधित होकर अपने साथ में आए उमरावों को आदेश दिया कि इन ब्राह्मणों को मारो और यज्ञ सामग्री नष्ट कर दो | यह सुन ब्राह्मणों ने सोचा कि यह राक्षस आ गये और उन्होंने राजपुत्र का ख्याल न करके श्राप दे दिया की अबुधियों, तुम जड़ - पाषाणवत हो जाओ ७२ उमराव और | ७२ उमराव और राजपुत्र घोड़ो सहित पाषाणवत हो गए | जब रजा ने यह समाचार सुना तो राजा ने प्राण छोड़ दिए | जब रजा के संग सोलह रानियाँ सती हो गई | और संपूर्ण राज्य को राजवाडो ने दबा लिया तब राजपुत्र की स्त्री और बहत्तर उमरावों की स्त्रियाँ रूदन करती हुई ब्राह्मणों के चरणों में आकर गिर पड़ी तब ब्राह्मणों ने उपदेश दिया और एक गुफा बतला दी कि तुम्हारे पति शिव-पार्वती के वरदान से पुन शुधबुद्धि हो जायेंगे | तब वे सब शिव-पार्वती का ज्ञमरण करने लगी | ब्राह्मणों के कहे अनुसार वहाँ शिव-पार्वती आये, जब सब स्त्रियाँ पार्वती के पैर लगी तब पार्वती जी ने सौभाग्यवती हो,"चिरंजीव हो " ऐसा आशीर्वाद दिया तब राजपत्नी के साथ ७२ उमरावों की स्त्रियाँ हात जोड़कर कहने लगी - देवी वरदान सोच समझ कर दीजिये क्यु की हमारे पति तो ब्राह्मणों के श्राप से पत्थर हो गए | जब पारवती जी ने भगवान महादेव जी के चरणों में गिरकर प्रार्थना की तब ,महादेव जी राजपुत्र के साथ ७२ उमरावों को जाग्रत कर दिया | जब उन ७२ उमरावों ने शंकर जी को घेर लिया तब शंकर जी ने वरदान दिया की तुम क्षमावान हो | लेकिन राजपुत्र सुजन पार्वती का रूप देखकर लुभायमान हो गया , तब पार्वती जी ने उसे श्राप दे दिया |
जब ७२ उमरावों ने शंकर जी की प्रार्थना की तब महादेव जी ने कहा की तुम क्षत्रित्व एवं शस्त्र को छोड़कर वैश्य रूप धारण करो ,लेकिन हाथों की जड़ता के कारण शस्त्र नहीं छुटे | तब महादेव जी ने कहा की तुम सूर्यकुंड में स्नान करो तब सूर्यकुंड में स्नान करते ही शस्त्र छुट गए और तलवार लेखनी भलो से डाडि , डालो से तराजू बनकर उन्हें वैश्य पद मिल गया , जब इन उमरवों को वैश्य बना दिया तब ब्राह्मणों ने शंकर जी के सामने आकर प्रार्थना की कि हमारा यज्ञ कब संपूर्ण होगा ? क्यूंकि इन्होनें तो विद्वंस किया है | तब शंकर जी बोले - तुम इन्हें शिक्षा दो जिससे ये स्वधर्म से चलने लगेंगे | इस प्रकार शंकर जी अंतध्यार्न हो गए और वे ७२ उमरावों ६ रुशिश्वारो के चरणों में गिर पड़े | एक -एक रूशी ने उन्हें अपना शिष्य बना लिया इस प्रकार से हर एक रूशी के १२ -१२ शिष्य हो गए | वे ही अब यजमान कहलाये जाते है |
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बूँद बूँद से निर्मित : अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा
माहेश्वरी समाज की प्रबुद्धता के लिए कुछ बताने की आवश्यकता नहीं । माहेश्वरी जाति की उत्पत्ति की जड़ में समाहित है - देवाधिदेव भगवान महेश का आशीर्वाद और मातेश्वरी पार्वती ( माता महेश्वरी ) का वात्सल्य भाव । पूरा इतिहास गवाह है माहेश्वरी समाज के निर्मलत्व का ।
एक कदम आगे की सोच - यह मूल मंत्र है इस समाज का ।
इसी सोच ने आज से 125 वर्ष पहले ही समाज उत्थान की कल्पनाएं होने लगी । घर कर गई कुरीतियों की चर्चा होने लगी । बीड़ा उठाए जाने की बातें होने लगी । शनैः शनैः ऐसी कल्पनाओं ने एक रूपरेखा का ढांचा खड़ा किया । माहेश्वरी बन्धु एकत्रित होकर चिन्तन करने लगे ।
और आज की विराट माहेश्वरी महासभा का शिशु प्रगट होने लगा ।
1947 के भारतीय लोकतंत्र से बहुत पहले महासभा ने लोकतांत्रिक रूप को अपनाया और हरहमेश परिमार्जित भी किया ।
आज महासभा की प्रथम कड़ी है ग्राम सभा । तहसील के सारे ग्राम अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजते हैं । उनका एक *कार्यकारीमण्डल* बनता है । फिर उस जिले की सारी तहसीलें मिल कर अपने चुने प्रतिनिधियों को भेजकर जिलासभा का निर्माण करती है । यहाँ फिर एक *जिला कार्यकारीमण्डल* का निर्माण होता है ।
*यह ध्यान देने की बात है कि सारी प्रक्रिया में हमारे परिवारों की संख्या का महत्व ही काम आता है और परिवार प्रमुख या उनकी आज्ञा से नियुक्त प्रतिनिधि ही इस व्यवस्था का हिस्सा बनते हैं ।*
हाँ , तो फिर उस प्रदेश के सारे जिलों से आए प्रतिनिधि अपने में से एक *प्रदेश कार्यकारीमण्डल* का निर्माण करते हैं । जिला सभा का एक और दायित्व होता है - अपने परिवारों की संख्या के आधार पर जिस संख्या का निर्धारण महासभा अपने विधानानुसार करती है - उनका चयन भी करती है । जिला सभा भी अपने पूर्ण क्षेत्र में बसे परिवारों की संख्या के आधार पर महासभा के लिए सदस्यों का चयन करती है । सारी प्रक्रिया पूर्ण लोकतांत्रिक होती है । सर्वसम्मति के अभाव में मतदान भी होता है । इसे *महासभा कार्यकारीमण्डल* कहते हैं । सारी जिलों से चुने ऐसे सदस्यों को प्रदेश अध्यक्ष की अनुमति भी आवश्यक होती है । प्रदेश सभा कार्यकारीमण्डल सदस्य अपने में से कमसेकम एक सदस्य को चुन कर महासभा की कार्यसमिति में भेजती है । प्रदेश अध्यक्ष कार्यसमिति का पदेन सदस्य होता है और प्रदेश मंत्री स्थायी विशेष आमंत्रित सदस्य होता है ।
सत्रावसान से पहले महासभा का कार्यकारीमण्डल अगले सत्र के लिए अपने वर्तमान सत्र के अनुभवों के आधार पर पूरे पदाधिकारियों का चुनाव करता है । चार राष्ट्रीय पद - सभापति , महामंत्री , अर्थमंत्री और संगठनमंत्री का चयन/चुनाव पूरे भारतवर्ष से आए कार्यकारीमण्डल सदस्य करते हैं । सभापति और महामंत्री अपने अपने कार्यालयों के लिए एक एक मंत्री की नियुक्ति करते हैं । और पांच क्षेत्रों - पूर्वांचल , उत्तरांचल , पश्चिमांचल , मध्यांचल और दक्षिणांचल से एक एक उपसभापति और एक एक संयुक्तमंत्री का चयन/चुनाव उन्हीं क्षेत्रों के महासभा कार्यकारीमण्डल सदस्य करते हैं । इस तरह 4+2+10 =16 पदाधिकारियों का समूह नए सत्र का कार्यभार संभालता है । इस मंत्रीमण्डल समूह में महासभा की दो इकाइयों ( महिला और युवा संगठन ) के अध्यक्षों और महामंत्रियों को भी स्थायी विशेष आमंत्रित किया जाता है । इस पारदर्शी परम्परा से नए सत्र का गठन होता है ।
नए सत्र की महासभा कार्यसमिति महासभा की मुख पत्रिका *माहेश्वरी* बोर्ड के चेयरमेन का चयन करती है । मुख्य चुनाव अधिकारी की नियुक्ति , 2 सदस्यों का सहवरण , विभिन्न समिति प्रमुखों का चयन भी करती है ।
महासभा की सारी सम्बद्ध संस्थाओं की गतिविधियों को सम्बन्धित *कार्यकारीमण्डल* ही स्वीकृत करता है । यही सर्वोच्च सदन है ।
महासभा के मूल उद्देश्य है *सद्विचारों के उत्पादन का* । महासभा गम्भीरता से चिन्तन कर अपने विचार समाज-गंगा को समर्पित करती है और शनैःशनैः समाज उसे अंगीकार करता है । यही समाज और महासभा के चोली-दामन का सम्बंध है । आज का माहेश्वरी युवा कम ही जानता है कि कालांतर में ओसर-मोसर , पर्दाप्रथा , बाल विधवा संकट , बालिकाओं का अशिक्षित रहना , बालकों में अल्प शिक्षा , मुद्दाप्रथा , दहेजप्रथा.... न जाने कितनी रूढ़ियाँ पनप गई थी । महासभा ने आहिस्ते आहिस्ते उनको दूर किया । आज के परिवेश में झांके तो हम स्वयं को इन रूढ़ियों से मुक्त पाएंगे ।
महासभा की विशेष देन रही - *समाज का बोध चिन्ह*
पहले व्यक्तिगत धनाढ्य परिवारों की धर्मशालाएं , मंदिर , कुए-बावड़ी , औषधालय , पाठशालाएं प्रायः देश भर में फैली हुई थी । महासभा की प्रेरणा से स्थानीय माहेश्वरी एकत्रित होने लगे और किंचितमात्र सहयोग भी विशाल धनराशि का सहभागी बना और माहेश्वरी भवन , सार्वहितार्थ स्कूलें , अस्पताल , होस्टल्स आदि के निर्माण का युग आया । आज आम माहेश्वरी भी बड़े भामाशाहों के साथ एक जाजम पर बैठकर चिंतन-मनन का भाग बनता है । उसकी बातों को तवज्जा दी जाती है । साधारण आर्थिक स्थिति के व्यक्ति के नेतृत्व में बड़े बड़े कार्य होते हैं ।
महासभा और आगे बढ़ी । महासभा की प्रेरणा से शनैःशनैः कई ट्रस्ट्स के निर्माण होने लगे ।
श्रीकृष्णदास जाजू की स्मृति में विधवा सहायता
आदित्यविक्रम बिड़ला की स्मृति में व्यापार सहयोग ऋण
रामगोपाल माहेश्वरी की स्मृति में शिक्षा सहयोग
बांगड़ परिवार का चिकित्सा सहयोग
बद्रीलाल सोनी की स्मृति में उच्चशिक्षा सहयोग
काबरा परिवार का महिला उत्थान सहयोग
बल्दवा परिवार का माध्यमिक शिक्षा सहयोग
चुन्नीलाल सोमाणी की स्मृति में प्राथमिक शिक्षा सहयोग
इन सारे ट्रस्ट्स की मुख्य विशेषता रही - समस्त माहेश्वरी बन्धुओं से छोटा छोटा सहयोग लेना । मुख्य सहयोग कर्ताओं का 40% तो बूँद बूँद से 60% का सहयोग प्राप्त हो रहा है । महासभा की सारी इकाइयां इन ट्रस्ट्स से आम माहेश्वरी को सहायता करवा रही है ।
समाज के शौर्यवान व्यक्तित्वों का सम्मान भी होना चाहिए , इसे दृष्टिगोचर कर अयोध्या की कार सेवा में शहीद हुए राम और शरद कोठारी बन्धुओं की स्मृति में एक ट्रस्ट बना -
कोठारी बन्धु शौर्य स्मृति ट्रस्ट ।
जब शिक्षा के लिए छात्र बाहर निकलने लगे तो महासभा फिर आगे आई । दूरदृष्टि से सोचकर शिक्षा के केंद्र शहरों में होस्टल्स बनाने की बड़ी स्कीम बनी । फिर तो कोटा , भिलाई , पुणे , बंगलोर , मुंबई , दिल्ली , कोलकाता , भीलवाड़ा आदि जगहों पर मुख्य सहयोग कर्ता के साथ आम माहेश्वरी जुड़कर होस्टल्स बनाते गए । आज छात्र-छात्राएं घर जैसे वातावरण में रहकर शिक्षा ले रहे हैं ।
महासभा के वर्तमान 28 वें सत्र में एक सर्वसम्मत निर्णय से एक रिलीफ फाउंडेशन ( ट्रस्ट ) का निर्माण हुआ । इस ट्रस्ट का संचालन महासभा के पदाधिकारियों की सहमति से होगा । इस ट्रस्ट के शुरू होते ही माहेश्वरी बन्धु जन्मदिन , शादी की वर्षगांठ , बच्चों की शादी , अन्यान्य अनेक तिथियों की यादगार में छोटी छोटी राशि भेंट करने लग गए हैं । उत्साह की पराकाष्ठा दिखने लगी है ।
आज महासभा की विभिन्न इकाइयां अपने अपने क्षेत्रों में मेडिकल कैम्प , रक्तदान शिविर , चेतना लहर शिविर , कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर , तीर्थ यात्रा , पर्यटन , वृद्धजन सम्मान , कन्या सम्मान आदि अनेक कार्य क्रियान्वित कर रही है । महेश नवमी के विशेष कार्यक्रम होते हैं एक जाजम पर बैठकर जीमते हैं । पदाधिकारी तूफानी दौरा कर समाज को जागृत कर रहे हैं ।
इस सत्र में *आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक सर्वेक्षण* जैसा दुष्कर कार्य भी हो रहा है । इस सर्वेक्षण के उद्देश्य अन्तिम पंक्ति पर खड़े परिवार को मुख्य धारा से जोड़ने का है । और सबल परिवार की आर्थिक सहायता से अपने सफल जीवन की शुरुआत हो सके - ऐसी महत्वपूर्ण योजना है । अनेक अस्पताल , बड़ी बड़ी उत्पादक इकाइयों से सम्पर्क कर विशेष छूट की बात हो रही है , कुछ कार्य तो प्रारम्भ भी हो गए हैं । वहीं जरूरतमंद परिवारों को विभिन्न ट्रस्ट्स से जोड़ा जा रहा है । महासभा की मुख पत्रिका *माहेश्वरी* का उन परिवारों को निशुल्क वितरण करने का प्रयास है जिनकी आय वार्षिक एक लाख तक की है ।
न्यात गंगा का स्नान अमृत समान होता है । महासभा राष्ट्रीय उन्नति में कंधे से कंधा लगाकर अपना कर्तव्य निभा रही है । सभा की शुरुआत भगवान महेश की आराधना उपरांत राष्ट्रगान *वंदेमातरम* से होती है । सर्वप्रथम समाज दिवंगतों के साथ शहीद वीरों को श्रद्धांजलि दी जाकर ही कार्यवाही प्रारम्भ होती है । सभा का समापन राष्ट्रगीत *जन गण मन* से होकर भारतमाता के जयकारे से होता है ।
*महासभा संस्कार और संस्कृति , सहयोग और प्रेरणा , सेवा और सदाचार का निर्माण करने वाली संस्था है ।
प्रस्तोता
*जुगलकिशोर सोमाणी , जयपुर*
मंत्री - महामंत्री कार्यालय
अखिल भारतवर्षीय माहेश्वरी महासभा